काल का ग्रास

एक बार अग्निदेव भूख से पीड़ित हो उठे।अपनी क्षुधा  शांत करने के लिए वे विकराल रूप धारण कर पृथ्वी कि और बढ़े। परन्तु उन दिनों पृथ्वी पर हैहयवंशी राजा कार्तवीर्य अर्जुन का राज था।वे अपनी सहस्र भुजाओ के साथ उसकी रक्षा करते थे।देवगण, यक्ष,दैत्य, राक्षस सभी उनसे भयभीत
रहते थे।एक बार उन्होंने राक्षस राज  रावण को भी बंदी बना लिया था।उनकी वीरता और पराक्रम का यश दसो दिशाओ में फैला हुआ था।अग्निदेव भी उनकी वीरता के बारे में  जानते थे।किस प्रकार अपनी क्षुधा शांत कि जाए, यही सोच कर वह चिंता में पड़ गए।
          कार्तवीर्य जहा वीरता के लिए प्रसिद्द थे, वही उनकी दानवीरता और दयालुता का यशो ज्ञान भी तीनो लोक में था।वे अपने द्वार पर आए याचक को कभी निराश नहीं लौटते थे।अंततः अग्निदेव को एक मार्ग सुझा।उन्होंने ब्राह्मण वेश  बनाया और कार्तवीर्य के दरबार में जा पहुचे।कार्तवीर्य ने उनका यशोचित सत्कार कर मनोवांछित वास्तु मांगने के लिए कहा।अग्निदेव बोले,"राजन, मैंने कई दिनों से भोजन नहीं किया है।भूख से मेरे प्राण मुह को आ रहे है।हे राजन आपकी दयालुता और परोपकार के बारे में सभी जानते है।इस समय मै  याचक रूप में आपके सामने खड़ा हु।कृपया आप मुझे मेरे पसंद का भोजन प्रदान करे।"
           "आप निश्चिन्त रहे  ब्राह्मण  देवता।आपको आपकी पसंद का भोजन अवश्य मिलेगा।मै वचन देता हु।"कार्तवीर्य ने पल भर में ब्राह्मण  को वचन दे डाला।
तभी अग्निदेव अपने वास्तविक रूप में आ गए।चूँकि कार्तवीर्य वचन दे चुके थे, अतः उन्होंने अनेक नगर, वन और पर्वत उन्हें समर्पित कर दिए।अग्निदेव प्रचंड रूप में प्रज्वलित हो उठे।उनकी विशाल लपटे एक एक कर संपूर्ण छेत्र को निगलने लगी।इसी बीच उन्होंने महर्षि वसिष्ठ  के आश्रम को भी जला डाला।इससे महर्षि क्रुद्ध हो उठे और कार्तवीर्य को शाप देते हुए बोले,"हे कार्तवीर्य!तेरी मुर्खता के कारन अग्निदेव ने मेरा आश्रम जलाया है।इसलिए मै शाप देता हु कि परम तपस्वी परशुराम तेरी सहस्र भुजाए काटकर तुझे प्राणदंड देंगे।"
           कार्तवीर्य ने शाप स्वीकार कर लिया।
           एक बार कार्तवीर्य शिकार खेलते हुए महर्षि जमदाग्नि के आश्रम में पहुचे।उनके साथ उनकी विशाल सेना भी थी।महर्षि जमदग्नि ने उनका यथोचित सत्कार किया और उन्हें व उनके सैनिको को मनपसंद भोजन परोसा।
          महर्षि का सामर्थ्य देख कार्तवीर्य बड़े विस्मित हुए।उन्होंने उनसे इस बारे में पुछा।जमदग्नि बोले,"राजन!इसमें कुछ भी विचित्र नहीं है।यह सब कामधेनु गे के आशीर्वाद का फल है।गौमाता ही आश्रमवासियों और आश्रम में आए अतिथियों का भरण-पोषण करती है।"
          कामधेनु  की  विशेषता सुनकर कार्तवीर्य उसे पाने के लिए उद्यत हो गए।उन्होंने महर्षि से गाय उन्हें सौपने के लिए कहा।परन्तु जमदाग्नि ने यह कहते हुए कामधेनु देने से इनकार कर दिया कि वे उनके लिए माता के समान है और वे उन्हें कदापि स्वयं से अलग नहीं करेंगे।इनकार सुनकर कार्तवीर्य क्रोधित हो गए।महर्षि वसिष्ठ के श्राप के कारण कार्तवीर्य कि बुद्धि भ्रष्ट  हो चुकी थी।अंततः कामधेनु को बलपूर्वक लेकर वे अपनी राजधानी माहिष्मतिपुरी कि और चल पड़े।
          परशुराम महर्षि जमदाग्नि के पुत्र थे।जब उन्हें इस घटना के बारे में पता चला तो वे क्रोध से भर उठे।उन्होंने फरसा उठाया और मार्ग में ही कार्तवीर्य को जा घेरा।दोनों में भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया।यद्यपि कार्तवीर्य अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी थे, तथापि शाप के पूर्ण होने का समय आ चूका था।परशुराम ने एक एक कर उनकी सभी भुजाए काट डाली।तदन्तर फरसे से एक ही बार में उनका मस्तक धड़ से अलग कर दिया।फिर वो कामधेनु को लेकर आश्रम में लौट आए।
          इस प्रकार महर्षि वसिष्ठ के श्राप के कारण कार्तवीर्य काल का ग्रास बन गए।

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